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________________ द्वारा जो ज्ञान होता है वही उसका फल है। अतः प्रमाण का मुख्य फल अज्ञाननिवृत्ति ही है। प्रमाण को यदि कर्तुं - साधन माना जाय तो प्रमाण प्रमाता - रूप हो जाता है। अन्य शब्दों में, प्रमाता आत्मा अधात गुणी और उसका गुण - रूप ज्ञान भिन्न-भिन्न होंगे क्योंकि गुणी और गुण में भेद होता है। परन्तुऐसी धारणा बैन - दर्शन के उस आधारभूत सिद्धांत के विपरीत पाती है जिसके अनुसार ज्ञान आत्मा ते पृथक नहीं है। इस संदर्भ में अकलंक का कहना है कि आrमा का गुण शान है । कान और आत्मा अपनी स्वाभाविक पूर्ण अवस्था में एक-दूसरे से पृथक नहीं रह सकते। यदि ज्ञान को आत्मा से सर्वथा भिन्न माना जाता है तो आला "प की तरह "अ" - कानन्य जाई हो जायेगी। कुंदकंद का कथन है कि यदि ज्ञानी और ज्ञान को सदा एक दूसरे से भिन्न पदार्थान्तर माना जायेगा तो दोनों अपेतन हो जायेंगे । क्योंकि ज्ञान के बिना आमा नहीं रह सकती। अत: क्षान आत्मा है। ___यदि प्रमाण और प्रमेय भिन्न-भिन्न हैं तो क्या यह संभव है कि कोई प्रमेय प्रमाण हो जाये' इसके उत्तर में, अकलंक कहते हैं कि यदि प्रमाण स्वयं अपना प्रमेय नहीं बन सकता, तो इसका अर्थ होगा उसे अपनी सत्ता सिद्ध करने के लिए दूसरे प्रमाण का सहारा लेना पड़ता है, दूसरे प्रमाण को तीसरे प्रमाण का और इस प्रकार अनवस्था-प्रसंग उपस्थित हो जायेगा । यदि ज्ञान को दीपक की तरह स्व* और "पर' का प्रकाशक माना जाये तो प्रमाण और प्रमेय के सा की उपर्युक्त समस्या का हल हो जाता है। प्रमेय, निश्चित रूप से, प्रमेयही है, किन्तपमाण - प्रमाण भी है और प्रमेय भी 10 करता है। पूजापाद का कथन है, जिस तरह दीपक घटादि पदार्थों को प्रकाशित करता है और अपने स्परूप को उसी समय प्रकाशित अपने स्वस्य को प्रकाशित करने के लिए दीपक को दूसरी पन्तु का आशय नहीं लेना पड़ता, उसी प्रकार ज्ञान 'स्व' और 'पर दोनों को प्रकाशित करता है।" आशय यह ही है कि प्रमाण पस्त प्रमाग और
SR No.010238
Book TitleJain Gyan Mimansa aur Samakalin Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAlpana Agrawal
PublisherIlahabad University
Publication Year1987
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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