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________________ II इस प्रतीकात्मक स्वरुप का स्पष्टीकरण इस प्रकार किया जा सकता है और अग्नि भी है, अग्नि नहीं है और नहीं है, ऐसा कोई उदाहरण नहीं है कि ा अग्नि नहीं है और अग्नि नहीं । कितु ा है, बसालिये यह संकेत मिलता है कि जहाँ है तो अग्नि भी है, 151 किन्तु फिर संगय हो सकता है कि और अग्नि से व्यापित संबंध हो सकता है अथवा नहीं, 161 किन्तु ऐसा कभी भी सत्य नहीं है कि अग्नि नहीं है किन्तु या है, 17. अत: अग्नि मही है तो जा नहीं है, It इस प्रकार निका निकलता है यदि आ है तो अग्नि भी है। यापि जैन दर्शन ने "त" की अध्वा रसेल ने "आगमन के सिद्धांत की सिद्धि अन्तःप्रज्ञा के आधार पर मानी तो किन्तु क्या आत: पुमान के सार्वभौम रूप से सत्य होने का दावा किया जा सकता है' यपि जैन दार्शनिकों और रसेल दोनों ने ऐसा दावा किया है। यह पान इसलिए उठता है क्योंकि आत:पक्ष सत्यों में रसेल के अनुसार वैयक्तिमतता होती है, यह सबके लिये सत्य नहीं हो सकता । किन्तु सामान्य तो सबके लिए सत्य होता है तब सामान्यता को अंत:पक्षा के आधार पर सिद्ध करने का क्या तात्पर्य अध्या औचित्य रह जाता है' संभवतः यही कारण है कि रसेल आगमनात्मक साहचर्य अथवा संयोजन को 'निश्चित ही न कहकर निचय के निकट या संभाव्य जैसे शब्दों से व्यक्त करते हैं
SR No.010238
Book TitleJain Gyan Mimansa aur Samakalin Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAlpana Agrawal
PublisherIlahabad University
Publication Year1987
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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