SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 114
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मात्मक वस्तु का एक समय में एक ही गुण का मान हो सकता है। यही कारण है कि जैन दार्शनिकों ने नयों के कई प्रकार माने | भाषा में इस सापेक्ष शान की अभिव्यापित पा निक्षेपों का उददेश्य है । शब्द के द्वारा जब किसी वस्तु का आन नहीं होता तब तक ज्ञान का नयाrमक स्वरुप प्रकट नहीं होता। इन्द्रियों से यदि घट ज्ञान हो तो तरवार्थभाष्यकार के अनुसार वह नयज्ञान नहीं है। घट पाहने पर जब ज्ञान होता है तभी यह शुतज्ञान होता है । यही कारण है कि पन्तु का ज्ञान प्रमाण और नग तेलता है । मात्र इतना ही जैन दार्शनिकों के लिये पर्याप्त नहीं है। जैन दार्शनिक वस्तु के म सम्यक शान के लिये प्रमाण और नय के साथ ही निक्षम का भी उल्लेख करते हैं नयचक्र में कहा गया है कि जो पदार्थ प्रमाण नय और निम के रासम्मक रीति से नहीं जाना जाता पार पदार्थयुक्त होते हुये भी मयुक्त की तरह प्रतीत होता है और अयुक्त होते हुये युक्त की तरह प्रतीत होता है। इसके बिना यथार्थ वस्तु की प्रतीति नहीं होती 139 किन्तु प्रश्न उछता है कि प्रमाण और नय से वस्तु में मान के बाद निक्षेप का औचित्य क्या है' इस प्रश्न पर माइल्लघायल का कहना है कि मय और प्रमाण से गृहीत वस्तु में निदेष योजना होती है जिसका उद्देश्य है अपकृत का निराकरण और प्रकृत का निरूपण 140 आगे वे कहते हैं कि वस्तु प्रमाण का विषय है, पस्तु का एक अंश नय का 'विप है और जो अनय और प्रमाण में निणीत होता है वष्ट निक्षम का विषय शाद के द्वारा जब तक किसी परतु का ज्ञान न हों तब तक ज्ञान का नयात्मक स्वरुप प्रकट नहीं होता। यही कारण है कि जो चार अर्थ नय कहे जोते हैं - मैभम नप, संग्रह नय, ध्यपहार-नय और अजुपूत्र मय पे शब्द पर आश्रित हैं
SR No.010238
Book TitleJain Gyan Mimansa aur Samakalin Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAlpana Agrawal
PublisherIlahabad University
Publication Year1987
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy