SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 106
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५५ एक व्यक्ति जो एकदम रोशनी से अंधेर कमरे में आता है तथा अँधेरे में पड़ी हुई एक रत्ती को देखकर उसे तापस लेता है । किन्तु एक दूसरा व्यकि जो पहले से ही अँधेरे कमरे में है, अधेरे का अभ्यस्त हो गया है, रस्सी को रस्सी के रूप में ही देखता है । अब नय विषयक जैन विवारों को देखें कि प्रत्येक नय अपने दृष्टिकोण से सत्य है तो स्पष्ट होगा कि पहले व्यक्ति का ज्ञान उसके दृष्टिकोण से सत्य है और दूसरे व्यक्ति का ज्ञान उसके दृष्टिकोण से सत्य है । किन्तु हम जानते हैं कि पहले व्यक्ति का ज्ञान भ्रम है और दूसरे व्यक्ति का ज्ञान सत्य है । ऐसा हम किस आधार पर कहते है कहने का तात्पर्य है कि दोनों व्यक्तियों का ज्ञान उनके दृष्टिकोणों से सत्य होने पर भी प्रमाण नहीं है । प्रमाण केवल दूसरे व्यक्ति का ज्ञान है क्योंकि वह सत्यापित हो चुका है । इनका अभिप्राय कि इसका तात्पर्य है कि कुछ वाक्य | Preposihon | जो किसी व्यक्ति के लिए are ft Gurdout हों वे असत्य । 1 False । भी हो सकते हैं 25 कुछ कथन ज्ञाता के बिना जाने सत्य भी हो सकते है। किसी ज्ञाता के लिए सत्य कथन निया का सत्यता और असत्यता से तार्किक दुषि से कोई अनिवार्य संबंध नहीं है । यह आवश्यक नहीं है कि ज्ञाता के दृष्टिकोण से सत्य सिद्ध | Erdent | कथन तार्किक दृष्टि से भी सत्य हौं । यह अप्रमाणित व असत्यापित ज्ञान है । इतका तात्पर्य हुआ कि वस्तु व्यक्ति के अपने व्यक्तिगत दृष्टिकोण ज्ञान से परे भी कुछ हो सकती है जो कि प्रमाण का विषय है । प्रमाण अनिवार्य में सत्यापित ज्ञान होता है और नय असत्यापित 1 हमारा नज्ञान व्यक्तिगत मत, विश्वास। जब सत्यापित होता है तब प्रमाण की कोटि मैं आता है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह ही कारण है जिससे कुछ जैन crafte नय को न तो प्रमाण की और न ही अप्रमाण की कोटि में रखना चाहते 12
SR No.010238
Book TitleJain Gyan Mimansa aur Samakalin Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAlpana Agrawal
PublisherIlahabad University
Publication Year1987
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy