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________________ कान ॥५॥ अरे कबहूं जाय सुरग पद् पायौ मानसीक दुख को घमसान ॥ कवहूं अबला को तन धारौ जहां कपट छल की है खान ॥ ६॥ अरे कवहूं जाय मलेक्षखंड में उपजै तहां महा अज्ञान ॥ कयह मानी रागी द्वेषी माया अहंकार दुखखान ॥७॥ अरे अव के नर तन उत्तम पायौ उत्तम कुल प्रारब्ध महान ॥ तातें गिरवर कहत चंदेरी भजलो हो श्री जिन भगवान ॥८॥ (८२) गीत (वन्दना के समय) भजलै श्री जिनवरजी की बानी, वानी के सुनतन करम नशानी कि पावे सुरग अमानी,कि भजलेनाटेकोचतुरयोग जिनवरजी ने भाषे चार कथा सुखदानी ग्यारह अंग पूर्व चौदह युत चौदह वाहिज थानी, कि भजलै०॥१॥ जिनवाणी से गती सुधरगई नाग नागिनी सानी ॥भूपति तो यमदंड हुप्रो इक तिनधारी जिनवानी, कि भजलै० ॥२॥ जिनने मन वच तन कर धारी पाई अविचल रानी ॥ जिनवानी गज कपि अज धारी पहुंचे वर्ग विमानी, कि भजलै० ॥३॥ जिनवाणी नृप शेखर फणपति परम प्रीति उर पानी ॥ जिनवानी इक ग्वाल जीव धरि वरी महा शिवरानी, कि भजलै०॥४॥ जिनवाणी धारे विन भविजन गति चारों भरमानी ॥ जो जिनवानी धारै उर में
SR No.010236
Book TitleJain Gitavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Sodhiya Gadakota
PublisherMulchand Sodhiya Gadakota
Publication Year1901
Total Pages117
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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