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________________ जो पालते समितियाँ, तत्र द्रव्य हिंसा, होती रहे, पर कदापि न भाव हिसा । होनी असंयमतया वह भाव हिसा, हो जीव का न वध पे बन जाय हिंसा ||३८९ ॥ सतत वे करते कराते, हैं कहाते । श्रहिसा, प्रशंसा ||३९०। हिमा द्विधा जो मत्त संयत श्रमयत पं प्रप्रमत्त मुनि धार होने गुणाकर, करूं द्विधा उनकी उठ बैठ जाता, मर जीव जाता । आता यती समिति से भाई तदा यदि मनो साधू तथापि नहि है अघकमं पाता, दोषी न हिंसक, प्रहिंसक ही कहाता ।। ३९१।। संमोह को तुम परिग्रह नित्य मानी, हिसा प्रमाद भर को सहमा पिछानो । अध्यात्म ग्रागम ग्रहो इस भांति गाता, भव्यात्म को सतत शान्ति सुधा पिलाता ।। ३९२॥ ज्यों पद्मिनी वह सचिक्कन पत्रवाली, हो नीर में न सड़ती रहती निराली । त्यों माधु भी समितियां जब पालता है, ना पाप लिप्त बनता सुख साधना है ।। ३९३॥ समितिपूर्वक दु:खहर्ता, प्राचार हो है धर्म-वर्धक तथा सुख-शान्ति कर्ता । है धर्म का जनक चालक भी वही है । धारो उसे मुकति की मिलती मही है ।। ३९४ ।। [ ७७ ]:
SR No.010235
Book TitleJain Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar Acharya
PublisherRatanchand Bhayji Damoha
Publication Year1978
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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