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________________ जो भी पदार्थ परकीय उन्हें न लेते, वे साधु देखकर भी बम छोड देते । है स्तेय भाव तक भी मन में न लाते, अस्तेय है व्रत यही जिन यों बताने ॥३७०। ये द्रव्य चेतन अचेतन जो दिखाते, माधू न भूलकर भी उनको उठाते । ना दॉत साफ करने तक सीक लेते, अत्यल्प भी बिन दिये कुछ भी न लेते ।।३७१।। भिक्षार्थ भिक्षु जब जायं, वहाँ न जायं, जो स्थान वजित रहा अघ हो न पायं । वे जायं जान कुल की मित भूमि ली ही, अस्तेय धर्म परिपालन श्रोट मो ही।।३७२।। अब्रह्म मेवन अवश्य अधर्म मन । है दोप धाम दख दे जिग भाति गल । निग्रन्थ वे इमलिए मब अन्य व्यागी, मेवे न मंथन कभी मुनि वीतगगी ॥३॥ माता मुता बहन मी लखना स्त्रियों को, नारी कथा न करना भजना गणो को । श्री ब्रह्मचर्य व्रत है यह मार हन्ता, है पूज्य वन्द्य जग में मुम्ब दे अनन्ता ॥३॥ जो अन्तरग बहिरग निमग होता, भोगाभिलाप बिन चारित भार ढोना है पांचवां व्रत "परिग्रह त्याग" पाता, पाता स्वकीय मुख, न दुख क्यों उठाता ?॥३३५।। [ ७३ ]
SR No.010235
Book TitleJain Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar Acharya
PublisherRatanchand Bhayji Damoha
Publication Year1978
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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