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________________ सागार मात्र इक भोजन दान से भी, लो धन्य धन्यतम हो धनवान से भी । दुःपात्र पात्र इस भांति विचार से क्या ? लं श्राम पेट भर ले !! बस पेड़ से क्या ? ॥ ३३२ ॥ । दिये न जाते, कदापि जाते समयानुकूल, शास्त्रानुकूल जल अन्न भिक्षार्थं भिक्षुक वहाँ न वे धीर वीर चलने लेते न अन्न प्रतिकूल कदापि भूल ॥३३३ ।। मागार जो प्रशन को मुनि को खिलाके, पश्चात सभी मुदित हो श्रवशेप पाके । वे स्वर्ग मोक्ष क्रमवार अवश्य पाते, संसार में फिर न कदापि न लौट आते ||३३४ || जो काल मे डर रहे उनको बचाना, माना गया अभयदान अहो मुजाना ! है चंद्रमा अभयदान ज्वलन्न दीखे, तो शेष दान उडु है पड़ जाय फीके ||३३५ ।। [ ६६ ]
SR No.010235
Book TitleJain Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar Acharya
PublisherRatanchand Bhayji Damoha
Publication Year1978
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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