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________________ (३) समन्वय सूत्र है वीतगग व्रत माध्य सदा सुहाता, होता मगग व्रत साधन, साध्यदाता । तो पूर्व माधन, अनन्तर साध्य धारो, मंपूर्ण बोध मिलता, शिव को पधागे ॥२०॥ ज्यों भीनरी कलुपता मिटती चलेगी, त्यों बाहरी विमलता बढती बढ़ेगी। देही प्रदोष मन में रखता जभी है, यो ! बाह्य दोप महमा करता तभी है। रे ! पंक भीतर मगेवर में रहा है जो बाद में जल कलकित हो रहा है ॥२८॥ मायाभिमान मद मोह विहीन होना, है भाव गदि. जिममें गिव सिद्धि लोना । पालो मे मकललोक अलोक देखा, यों बोर ने मदुपदेश दिया मुरखा ।।२८२ । जो पंच पाप तज, पावन पुण्य पाना, हो दूर भी अगुभ में गुभ को जुटाता । रागादि भाव फिर भी यदि ना नजेगा शुद्धान्म को न मुनि होकर भी भजेगा ।।२८३।। तो प्रादि में अशुभ को शुभ मे मिटायो, शुद्धोपयोग बल में शुभ को हटाम्रो । यों ही अनुक्रमण में कर कार्य योगी, ध्यानो निजात्म-जिन को, मुख शांति होगी ॥८४ चारित्र नष्ट जव हो दग बोध घाते. जाने मुनिश्चय मही रह वे न पाने हो या न हो विलय पं दग बोध का रे ! जावे चरित्र. मत यों व्यवहार का रे!1:२८५ ।
SR No.010235
Book TitleJain Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar Acharya
PublisherRatanchand Bhayji Damoha
Publication Year1978
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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