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________________ (मा) सम्यग्दर्शन अंग ये प्रष्ट अङ्ग दृग के, विनिशकिता है, नि:कांक्षिता विमलनिर्विचिकित्सिता है। चौथा अमूढ़पन है उपगहना को, धारो स्थितीकरण वत्सल भावना को ॥२३१॥ निःशंक हो निडर हो सम-दृष्टि वाले, माती प्रकार भय छोड़ स्वगीत गा लें । निःशंकिता अभयता इक साथ होती, है भीति हो स्वयम हो भयभीत, रोती ।।२३२ कांक्षा कभी न रखता जड़पर्ययों में, धर्मो-पदार्थ दलके विधि के पलों में । होता वही मुनि निकांक्षित अनधारी, बन्द उन्हें बन सकें द्रुत निर्विकारी ॥२३३।। मम्मान पूजन न वंदन जो न चाहे, यो का कभी श्रमण हो निज च्यानि चाहे ? हो गयमी यनि प्रती निज ग्राम योजी, हो भिक्षु तापस वही उसको नमो जी ।।२३४।। हे योगियो ! यदि भवोदधि पार जाना, चाहो अलौकिक अपार स्वसौख्य पाना । क्यों ख्याति लाभ निज पूजन चाहते हो? क्या मोक्ष लाभ उनमे तुम मानने हो ?।।२३।। कोई घृणास्पद नहीं जग में पदार्थ, सारे सदा परिणमें निज में यथार्थ । जानी न ग्लानि करते फलतः किसी से, धारे तृतीय दुग अङ्ग तभी खुशी से ॥२३६॥ [ w]
SR No.010235
Book TitleJain Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar Acharya
PublisherRatanchand Bhayji Damoha
Publication Year1978
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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