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________________ १५ प्रात्म सूत्र तत्वों, पदार्थ-निचयों, जड़वस्तुओं में, है जीव ही परम श्रेष्ठ यहाँ सबों में । भाई मनन्त गुण धाम नितान्त प्यारा, ऐसा सदा समझ, ले निज का सहारा ॥१७७॥ प्रात्मा वही विविध है बहिरंतरात्मा, प्रादेय है परम प्रातम है महात्मा । दो भेद हैं परम प्रातम के सुजानो, हैं वीतराग "अरहन्त सुसिद्ध" मानो ॥१७८॥ मैं हूँ शरीरमय ही बहिरात्म गाता, जो कर्म मुक्त परमातम है कहाता । चैतन्य धाम मुझसे, तन है निराला, यों अन्तरात्म कहता, सम दृष्टिवाला ॥१७९॥ जो जानते जगत को बन निविकारी, सर्वज्ञदेव अरहन्त शरीरधारी । वे सिद्ध चतन-निकेतन में बसे हैं, सारे अनन्त सुख मे सहसा लमे है ॥१०॥ वाक्काय से मनस में ऋषि सन्त सारे, वे हेय जान बहिगत्मपना विसारे । हां ! अन्तरात्मपन को रुचि से मुधारे, प्रत्येक काल परमातम को निहारे ॥१८१॥ संसार चंक्रमण ना कुलयोनियाँ हैं, ना रोग, शोक, ग। जाति-विजातियां हैं ना मार्गना न गुणथानन की दशायें शुदात्म में जनन मृत्यु जरा न पायें ।।१८२।। [ ३७ ]
SR No.010235
Book TitleJain Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar Acharya
PublisherRatanchand Bhayji Damoha
Publication Year1978
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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