SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 44
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जो एक, एक कर रात व्यतीत होती, प्राती न लौट, जनता रह जाय रोती / मोही अधर्म रत है, उसकी निशायें, जाती वृथा दुखद है उलटी दिशायें / / 118 // ले द्रव्य को वनिक तीन चले कमाने, जाके बमे गहर में खुलतीं दुकानें / है विज एक उनमें धनको बढ़ाता, है एक मूल धन लेकर लौट आता // 119 / / प्रो मद, मूल धनको जिमने गवाया, सारा गया वितथ हाय ! किया कराया / ऐमा हि कार्य अवलो हमने किया है, मद्धर्म पा उचित कार्य कहां किया है ? / / 120 / / प्रात्मा म्वरूप रत प्रातम को जनाता, शुद्धात्म रूप निज माक्षिक धर्म भाता / प्रात्मा उसी तरह मे उसको निभावे, शीघ्रातिशीघ्र जिसमे मुव पाम आवे // 11 // समगतं
SR No.010235
Book TitleJain Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar Acharya
PublisherRatanchand Bhayji Damoha
Publication Year1978
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy