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________________ ५ संसार चक्र सूत्र संसार शाश्वत नहीं ध्रुव है न भाई, पाऊँ निरन्तर यहां दुख, ना भलाई। तो कौन सी विधि विधान सुयुक्तियां रे ! छूटे जिसे कि मम दुर्गति पंक्तियां रे ! ॥४५॥ ये भोग काम मधु-लिप्त कृपाण से हैं, देते सदा दुख सुमेरु-प्रमाण से हैं। संसार पक्ष रखते सुख के विरोधी, हैं पाप धाम, इनसे मिलती न बोधि ॥४६॥ भोगे गये विषय ये बहुबार सारे, पाया न सार इनमें मन को विदारे । रे ! छान बीन कर लो तुम वार वार, निम्सार भून कदली तरु में न सार ॥४७॥ प्रारम्भ में अमृत मो सुख शान्तिकारी, दे अन्त में अमित दारुण दुःख भारी। भूपाल-इन्द्रपदवी सुर मम्पदायें । छोड़ो इन्हें विषम ये दुख प्रापदायें ॥४८।। ज्यों तीव्र खाज चलती खुजली ग्वजाते रोगी तथापि दुख को सुख ही बनाने । मोहाभिभूत मतिहीन मनुष्य सारे, त्यों काम जन्य दुख को मुख ही पुकारें ॥४९।: संभोग में निरत, मन्मति से परे हैं, जो दुःख को मुम्ब गिर्ने, भ्रम में परे हैं । वे मढ़ कर्म-मल में फमने वृथा है, मकवी गिरी नहाती कफ में यथा है ॥५०।। पद्यानुवाद
SR No.010235
Book TitleJain Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar Acharya
PublisherRatanchand Bhayji Damoha
Publication Year1978
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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