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________________ पाके निमित्त मन इन्द्रिय का, प्रघारी, होता प्रसूत श्रुत ज्ञान श्रुतानुसारी । है प्रात्म-तत्त्व पर-सम्मुख थापने में, स्वामी समर्थ श्रुत ही मति जानने में ॥६७९॥ हो पूर्व में मति सदा श्रुत बाद में हो, ना पूर्व में श्रुत कभी मति बाद में हो । होती 'पृ' धातु परिपूरण पालने में, हो पूर्व में मति अतः श्रुत पूरणे में ॥६८०।। सीमा बना समय प्रादिक की सयाने ! रूपी पदार्थ भर को इकदेश जाने । जो ख्यात भाव-गुण प्रत्यय से ससीमा, माना गया अवधिज्ञान वही सुधी मान ! ॥६८१॥ है चित्त चितित अचितित चिंतता है, या सार्ध चितित नृलोकन में यहाँ है। जो जानता बस उमे शिव सौख्य दाता, प्रत्यक्ष ज्ञान मन पर्यय नाम पाता ॥६८२॥ शुद्धक प्रो सब, अनन्त विशेष आदि, ये अर्थ हैं सकल केवल के अनादि । कैवल्य ज्ञान इन सर्व विशेषणों में, शोभे अतः भज उसे, बच दुर्गुणों से ॥६८३॥ जो एक साथ सहसा बिन रोक-टोक, है जानता सकल लोक तथा अलोक । 'कैवल्य ज्ञान', जिसको नहिं जानता हो, ऐसा गतागत अनागत भाव ना हो ॥६०४॥ [ १३२ ]
SR No.010235
Book TitleJain Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar Acharya
PublisherRatanchand Bhayji Damoha
Publication Year1978
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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