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________________ पर्याय एक नशतो जब लौं जहाँ है, तो दूसरी उपजती तब लौं वहाँ है । पं द्रव्य है ध्रुव त्रिकाल अबाध भाता, ना जन्मता न मिटता यह शास्त्र गाता ॥६६६॥ पौरुष्य तो पुरुष में इक सार पाता, ले जन्म से मरण लौ नहिं छोड़ जाता। वार्धक्य औ शिशु किशोर युवा ददाये, पर्याय है जनमती मिटनी सदा ये ॥६६७।। पर्याय जो सदृश द्रव्यन की सुहाती, सामान्य नाम वह निश्चित धार पाती। पर्याय हो विसदृशा वह हो विशेपा, ये द्रव्य को तज नही रहती निमेपा ।।६६८।। सामान्य और सविशेष द्विधर्म वाला, हो द्रव्य ज्ञान जिसको लखता सुचाग । मम्यक्त्व का वह सुसाधक बोध होता, मिथ्यात्व मित्र, प्रार्य मित्र । कुबोध होता ।।६६९।। हो एक ही पुरुष भानज तान भाई, देता वही मुत किसी नय मे दिखाई । पै भ्रात नात मत प्रो मबका न होता, है वस्तु धर्म इम भॉति अशांनि खोता ॥६७०।। जो निर्विकल्प मविकल्प द्विधर्म वाला, है गोभता नर मनो शशि हो उजाला । एकान्त मे यदि उमे इक धर्मधारी, जो मानता वह न पागम बोध धारी ॥६७१।। [ १२६ ]
SR No.010235
Book TitleJain Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar Acharya
PublisherRatanchand Bhayji Damoha
Publication Year1978
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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