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________________ सर्वत्र हैं विपुल हैं विधि वर्गणायें, आकीर्ण पूर्ण जिनसे कि दशों दिशायें । वे जीव के सब प्रदेशन में समाते, रागादि भाव जब जीव सुघार पाते ॥६५७।। ज्यों राग-रोष मय भाव म्वचित्त लाता, है मूढ़ पामर गुभाशुभ कर्म पाता । होता तभी वह भवान्तर को रवाना, ले साथ ही नियम मे विधि के खजाना ॥६५८।। प्राचीन कर्म वग देह नवीन पाते, संसारिजीव पुनि कर्म नये कमाते । यों बार-बार कर कर्म दुखी हुए हैं, वे कर्म-बन्ध तज सिद्ध मुखी हुए हैं ॥६५९।। दोहा "तत्व दर्शन" यही रहा निज दर्शन का हेतु, जिन दर्शन का सार है भवसागर के मेनु । ( तृतीय खण्ड समाप्त ) [ १२७ ]
SR No.010235
Book TitleJain Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar Acharya
PublisherRatanchand Bhayji Damoha
Publication Year1978
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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