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________________ है कर्म नष्ट करता जितना वनों में, जा अश धार तप, कोटि भवों भवों में। ज्ञानी निमेष भर में त्रय गुप्ति द्वारा है कर्म नष्ट करता उतना मुचारा ॥६१२।। होता विनष्ट जब मोह अशांतिदाई, तो शेष कर्म सहसा नश जाय भाई । मेनाधिनायक भला रण में मरा हो सेना कभी बच सके? न वचे जरा प्रो ॥६१३॥ लोकान्त ली गमन है करता मुहाता, है सिद्ध कर्ममलमुक्त, निजात्म धाता, मर्वज्ञ हो लस रहा नित सर्वदर्गी होता अतींद्रिय अनन्त प्रमोद म्पर्शी ।।६१४।। संप्राप्त जो सुख, सुरों अमुरों नरों को, प्रो भोग भूमिजजनों अहमिद्रकों को। प्रो मात्र बिन्दु, जब सिद्धनका मुसिधु, खद्योत ज्योत इक है, इक पूर्ण इन्दु ।।६१५।। संकल्प तर्क न जहाँ मन ही मरा है ना प्रोज तेज, मल की न परंपरा है । संमोह का क्षय हुमा फिर खेद कैसे ? ना शब्द गम्य वह मोक्ष दिखाय कैमे ॥६१६॥ बाधा न जीवित जहाँ कुछ भी न पीड़ा, माती न गन्ध सुख की दुख से न क्रीड़ा। ना जन्म है मरण है जिसमें दिखाते, "निर्वाण" जान वह है गुरु यों बताते ॥६१७॥ [ ११८ ]
SR No.010235
Book TitleJain Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar Acharya
PublisherRatanchand Bhayji Damoha
Publication Year1978
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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