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________________ स्वाधीन बोध दग पाकर केवली हैं. जीता जभी स्वयम को जिन हैं बली है। होता सयोगि जिन योग समेत ध्यानी, ऐसा कहें अमिट अव्यय प्रापवाणी ।। ५६३॥ है प्रष्ट कर्म मल को जिनने हटाया, सम्यक्तया सकल प्रास्रव रोक पाया। वे हैं, अयोगि जिन पावन केवली है, हैं गील के सदन में सुख के धनी है ।।५६४।। प्रात्मा अतीत गुणथान बना जभी मे, मानन्द ऊर्ध्व गति है करता तभी में। लोकाग्र जा निवसता गुण अष्ट पाता, पाता न देह भव में नहि लौट आता ॥५६५॥ वे कर्म-मुक्त, नित मिद्ध मुगान्त ज्ञानी, होते निरंजन न अंजन की निशानी । सामान्य प्रष्ट गुण पाकर हो लमे है, लोकाग्र में स्थिति शिवालय में बमे है । ५६६॥ भाई मुनो तन अचेतन दिव्य नौका, तो जीव नाविक मचेतन है अनोखा । मंमार मागर रहा दुःग्व पूर्ण खाग, हैं नैरते ऋषि महर्षि जिम मुचाग ।।५६७।। है लक्ष्य विन्दु यदि गाश्वत मौम्य पाना, जाना मना विषय में मन को घुलाना । दे देह को उचित वेतन न मयाने ! पाने स्वकीय मुख को विधि को मिटाने ।।५६८।। [ १०६ ]
SR No.010235
Book TitleJain Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar Acharya
PublisherRatanchand Bhayji Damoha
Publication Year1978
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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