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________________ जैसा दही-गुड़ मिलाकर स्वाद लोगे, तो भिन्न-भिन्न तुम स्वाद न ले सकोगे। वैसे हि मिश्र गुणथानन का प्रभाव, मिथ्यापना समपनाश्रित मिश्रभाव ॥५५१।। छोड़ी प्रभी नहिं चराचर जीव हिंसा, ना इंद्रियां दमित की तज भाब-हिंसा । श्रद्धा परन्तु जिसने जिन में जमाई, होता वही अविरती समदृष्टि भाई ॥५५२॥ छोड़ी नितान्त जिसने त्रसजीवहिंसा, छोड़ी परन्तु नहिं थावर जीव-हिंसा । लेता सदा जिनप पाद पयोज स्वाद, हो एक देश विरती "भलि" निर्विवाद ॥५५३॥ धारा महाव्रत सभी जिसने तथापि, प्राय: प्रसाद करता फिर भी मपापी। शीलादि सर्वगुण धारक संग त्यागी, होता प्रमत्त विरती कुछ दोष भागी ॥५५४।। गीलाभिमंडित, व्रती गुण धार ज्ञानी, त्यागा प्रसाद जिसने बन प्रात्म-ध्यानी । पै मोह को नहिं दवा न खपा रहा है, है अप्रमत्त विरती, सुख पा रहा है।।५५५।। जो भिन्न-भिन्न क्षण में चढ़ पाठवें में, योगी अपूर्व परिणाम करें मजे में। ऐमे अपूर्व परिणाम न पूर्व में हो, वे ही अपूर्व करणा गुणथान में हो ॥५५.६।। [ १:]
SR No.010235
Book TitleJain Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar Acharya
PublisherRatanchand Bhayji Damoha
Publication Year1978
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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