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________________ प्रादेय, हेय अहिताहित-बोध होना संसारि प्राणि भर में समभाव होना । दानी तथा सदय हो पर दुःख खोना, ये पीत लक्षण इन्हें तुम धार लो ना ।।५४२ । हो त्याग भाव, नयता व्यवहार में हो । औ भद्रता, सरलता, उर कार्य में हो, कर्त्तव्य मान करना गुरुभक्ति सेवा, ये पद्य लक्षण क्षमा धर लो सदैवा ।।५४३॥ भोगाभिलाप मन म न कदापि लाना, प्रो देह-नेह रति-रोपन को हटाना । ना पक्षपात करना समता सभी में, ये शुक्ल लक्षण मिले मुनि में सुघो मे ॥५४४।। पा जाय गुद्धि परिणाम मन में जभी से, लेश्या विशुद्ध बनती, सहमा तभी मे । कापाय मन्द पड़ जाय अशानिदायी, हो जाय पात्म परिणाम विशुद्ध भाई ।। ५४५।। [ १.५]
SR No.010235
Book TitleJain Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar Acharya
PublisherRatanchand Bhayji Damoha
Publication Year1978
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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