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________________ ३१. लेश्या सूत्र शशि शुक्ल शुलेश्यकायें, दशायें । ये पीत, पद्म हैं धर्म ध्यान रत श्रातम की प्रौ उत्तरोत्तर सुनिर्मल भी मन्दादि भेद इनके मिलते कई रही होती कषाय वश योग प्रवृत्ति लेश्या, है लूटती निधि सभी जिस भाँति बेश्या । जो कर्मबन्ध जग चार प्रकार का है, हे मित्र ! कार्य वह योग- कषाय का है ।। ५३२ ।। हैं, हैं ।। ५३१ ॥ । ।। नीलम कपोत कुलेश्यकायें, सुलेश्यकायें, हैं कृष्ण हैं पीत पद्म सित तीन लेश्या कही समय में छह भेद बाली ज्यों ही मिटी समझ लो मिटती भवाली ॥५३३ || लेश्यकायें, मानी गई अशुभ प्रादिम तीनों अधर्म मय हैं दुख आपदायें । आत्मा इन्हीं वश दुखी बनता वृथा है पापी बना, कुगति जा सहता हैं तीन धर्ममय अंतिम मानी गई शुभ सुधा सुख ये जीव को मुर्गात में वे धारते नित इन्हें जग में सब 1 व्यथा है ।। ५३४।। लेश्यकायें, सम्पदायें | भेजती हैं, व्रती हैं ।। ५३५।। है तीव्र, तीवतर, तीव्रतमा कुलेश्या, है. मन्द, मन्दतर, मन्दतमा सुलेश्या । भाई ! तथैव छह थान विनाश वृद्धि, प्रत्येक मं बरतती इनमें [ १०३ ] सुवृद्धि ! ॥ ५३६ ॥
SR No.010235
Book TitleJain Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar Acharya
PublisherRatanchand Bhayji Damoha
Publication Year1978
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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