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________________ पालोचना गरहणा करता स्वनिन्दा, जो साधु दोष करता अघ का न धन्धा । होता प्रतिक्रमण भाव मयी वही है, तो दोष द्रव्यमय है रुचते नही है ।।४३१॥ रागादि भावमल को मन मे हटाता, हो निर्विकल्प मुनि है निज प्रात्म ध्याता । मारी क्रिया वचन की तजता मुहाता, मच्चा प्रतिक्रमण लाभ वही उठाता ।। ४३२॥ म्वाध्याय रूप सर में अवगाह पाता, सम्पूर्ण दोष मल को पल में धुलाना मद्ध्यान ही मिपम कल्मष पातको का, मच्चा प्रतिक्रमण है घर मद्गुणो का ।।४३३॥ है देह नेह तज के जिन गीत गाते । साधु प्रतिक्रमण है करते सुहाते । कायोतसर्ग उनका वह है कहाता, संमार में सहज शाश्वत शातिदाता ॥४३४।। घोरोपसर्ग यदि हो प्रसुरों सुरों मे, या मानवों मृगगणों मरुतादिकों से । कायोतमर्गरत साधु सुधी तथापि, निस्पन्द शैल, लसते समता-मुधा पी ।।४३५॥ हो निर्विकल्प तज जल्प-विकल्प मारे, साधु अनागत शुभाशुभ भाव टारे शुदात्म ध्यान सर मे डुबकी लगाते, वे प्रत्यख्यान गुण धारक है कहाते ।।४३६।। [ ६४ ]
SR No.010235
Book TitleJain Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar Acharya
PublisherRatanchand Bhayji Damoha
Publication Year1978
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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