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________________ . (४१) मैं कहां तक लिख , यदि आत्मा व्यापक माना जाय तो आत्मा का शरीर के बाहर का जो अश है सो तमाम निकम्मा ( निष्फल ) है, क्योंकि वह अश, कुछ नहीं जानता है, न स्मति कर सकता है, और न कोइ भी क्रिया वह कर सकता है, ठीक ठीक वह अश और जड पदार्थ समान हो जाते है, इसलिये यही कहना ठीक है कि आत्मा स्वशरीर परिमित है, और यदि आत्मा को व्यापक मानें तो फिर उपासना क्यों करनी, उपासना किसकी करनी यह सब प्रश्न उपस्थित होते है, जिसका उत्तर श्रीब्रह्माजी, सी. आई. इ. भी नहीं दे सकते हैं, इसलिये शास्त्रीजी से मैं नम्र प्रार्थना करता हू की आप सत्य के पक्षपाती बनकर अपने ब्राह्मण जन्म को सफल कीजिये, और कुछ कृपाकर सायन्स भी पढ लीजिये जिससे पाश्चात्य लोग आपकी हंसी न करै । ____ जो शास्त्रीजीने लिखा है कि मुक्तजीव उपर क्यों जाते हैं , यह शास्त्रीजीकी शङ्का शास्त्रीजीकी सब पोलको खोल देती है, क्योंकि जड, चेतन यह दोनों पदार्थ में क्या क्या शक्तिया हैं उससे शास्त्रीजी अप. रिचित है. देखिये, और सावधानी से विचारिये पूर्वप्रयोगाद , असङ्गत्वात् , बन्धच्छेदात् , तथागतिपरिणामाच तद्गतिः।।। अर्थात् यह चार प्रकार से जीवकी ऊर्ध्वगति होती है. शास्त्रीजी
SR No.010234
Book TitleJain Gazal Gulchaman Bahar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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