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________________ जैनधर्म में तप का महत्व उपकार के लिये, नर से नारायण बनने के लिए, जन से जिन बनने के लिए श्रम करता है, वही सच्चा श्रमण है । जैन आचार्यों ने उसे तपस्वी कहा है । देखिये आप प्राचीन आचार्यों के अमर वचन श्राम्यति तपसा खिद्यति इति कृत्वा श्रमणो वाच्यः१ जो श्रम करता है, अर्थात् तपःसाधना करता है, तप से शरीर को खेदखिन्न करता है- इस कारण उसे श्रमण कहा जाता है। यही बात आचार्य हरिभद्रसूरि ने कही है श्राम्यतीति श्रमणा तपश्यन्तीत्यर्थ:२ वास्तव में श्रमण शब्द तपस्वी का ही वाचक बन गया है, और जैनमुनि कठोर तपस्या का प्रतीक माना गया है । जैन श्रमण का जीवन मंत्र ही तप था। तप ही उसका धर्म था। महानता का मार्ग : तप जैन धर्म का इतिहास पढेंगे तो पता चलेगा कि यहाँ जितने भी महापुरुष हुए हैं वे सब तपस्या करके हुए हैं । जितने भी ऊंचे और श्रेष्ठ पद हैं, उनको तप के द्वारा ही प्राप्त किया गया है। भगवान ऋपभदेव जो इस युग के आदि पुरुप थे उन्होंने एक हजार वर्ष तक कठोर तपस्या करके केवल ज्ञान प्राप्त किया। यह नहीं कि महापुरुष को वैसे ही कुछ सिद्धि प्राप्त हो जाये । वास्तव में तो तपस्या द्वारा ही महापुरुष बना जाता है। ऋषभदेव जैसे युग के आदिकर्ता को भी एक हजार वर्ष तक उग्र तप करना. पड़ा। भगवान महावीर ने भी बारह वर्ष और साढ़े छह मास तक कठोर उग्र और लोम-हर्षक तपःसाधना की थी, उनकी उग्र तपस्या को देखकर पास-पड़ोस के अनेक धर्माचार्य चकित हो गये थे, वे आश्चर्य और विस्मय के साथ भगवान महावीर की कठोर तपश्चर्या का उल्लेख भी करते १ सूत्रकृतांग १।१६ की टीका, आचार्य शीलांक २ दशवकालिक वृत्ति ११३ आचार्य हरिभद्र ३ कल्पसूत्र १६६
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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