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________________ तप की परिभाषा ३३ ६५०-७५० ) ने भी तप की व्युत्पत्तिजन्य परिभाषा करते हुए यही बात कही है. तप्यते अणेण पावं कम्ममिति तपो । जिस साधना आराधना से, उपासना से पाप उसे तप कहा जाता है । जैसे पहाडो पर बर्फ ast चट्टाने बन जाती हैं, उन पर चलो तो पाव फिसलने लगता है, ठिठुर ने लगता है, किन्तु यदि कोई उन चट्टानो के पास मे आग जलादे, तो उसके ताप से वे चट्टानें धीरे-धीरे पिघलने लगती हैं और पानी बन कर बह जाती हैं । इसी प्रकार आत्मा पर कर्मों की बडी बडी बर्फीली चट्टाने जमी हैं, जब तप की अग्नि प्रज्वलित होती है तो उसके ताप से ये चट्टानें पिघल कर बह जाती है । इसलिए उन कर्म रूप हिमखण्डो को उत्तप्त करने वाली शक्ति को 'तप' कहा गया है । आचार्य अभयदेवसूरि ने तप का निरुक्त - शाब्दिक अर्थ करते हुए कहा है कर्म तप्त हो जाते हैंजमती है, पानी की बडी रसरुधिर मास मेदाsस्थि मज्जा शुक्राण्यनेन तप्यन्ते, कर्माणि वाऽशुभानीत्यतस्तपो नाम निरुक्त | 2 - जिस साधना के द्वारा शरीर के रस, रक्त, मास, हड्डिया, मज्जा, शुक्र आदि तप जाते हैं, सूख जाते हैं, वह तप है, तथा जिसके द्वारा अशुभ कर्म जल जाते हैं वह तप है । यह तप की शाब्दिक परिभाषा है, जिसे सस्कृत मे निरुक्त कहते है । तप से देह भी जर्जर हो जाती है, शास्त्रों में तपस्वियो का वर्णन किया है— सुवखे, लुषखे निम्मसे- 'शरीर लूखा, सूखा, मास रहित, रक्त रहित हड्डियों का ढाचा मात्र बनजाता है, और कर्म तो उससे निर्मूल होते ही हैं । इस प्रकार देहगत प्रभाव और आत्मगत प्रभाव - दोनो ही दृष्टियों से तप की परिभाषा की है—तप्त करने वाला तप ! १ निशीथचूर्णि ४६ २ स्थानाग वृत्ति ५| ३
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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