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________________ जैन धर्म में तप ५७० ( ३ ) तत्त्व विशेष का प्ररूपण करने के लिये व्याख्यानकर्ता एवं ग्रन्थकर्ता अपने आप प्रश्न उठाता है एवं फिर उसका समाधान करता है । इस प्रकार का प्रश्न अनुयोगी प्रश्न है । जैसे—-आगम में "कई किरियाओ पन्नताओ" यो प्रश्न उठाकर पांच क्रियाओं का स्वरूप समझाया गया है । ( ४ ) सामनेवाले को अनुकूल करने के लिये - "आप कुशल तो हैं"... इत्यादि शिष्टाचार रूप जो प्रश्न पूछा जाता है, वह अनुलोम प्रश्न है । (५) प्रश्न का उत्तर जानते हुए भी गौतमआदिवत् जो प्रश्न पूछा जाता है, वह तथाज्ञान प्रश्न है । केशीस्वामी द्वारा किये गये प्रश्न भी इसी कोटि के हैं । ( ६ ) प्रश्न का उत्तर न जानते हुए अज्ञानी व्यक्ति द्वारा यत्किचित् प्रश्न किया जाता है वह अतथाज्ञानप्रश्न है । १३. पृष्ठ ४६६ पर धर्म कथा के चार भेद बताये गये हैं । इन चारों के चार-चार अन्तर्भेद करके कुल १६ भेद भी किये गये हैं । इनका विस्तृत वर्णन स्थानांग ४४२/२८२ की टीका तथा दशवैकालिक अ० ३ की नियुक्ति गाया १६७-६८ की टीका में प्राप्त होता है । वह वर्णन विशेष ज्ञातव्य होने से यहां दिया जा रहा है १. आक्षेपणीधर्मकथा - श्रोताओं को मोह से हटाकर धर्मतत्व की ओर आकर्षित करने वाली कथा आक्षेपणी कहलाती है । यह चार प्रकार की होती है- १. आचारआक्षेपणी, २. व्यवहारआक्षेपणी ३. प्रज्ञप्ति आक्षेपणी, (४) दृष्टिवाद आक्षेपणी (क) केश- लोच अस्नान आदि साबुआचार के द्वारा अथवा ददावैकालिकआचारांग आदि आचार-प्रदर्शक सूत्रों के व्याख्यान द्वारा श्रोताओं को तत्व के प्रति आकपित करने वाली कथा आचार-आक्षेपणी हैं । (स) किसी तरह का दोष लगाने पर उसकी शुद्धि के लिये आलोचना आदि प्रायश्चित्त अथवा व्यवहार बृहत्कल्प वादि सूत्रों के व्याख्यान द्वारा
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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