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________________ : परिशिष्ट २ १३ १४ विद्यया तपसा चिन्तया चोपलभते ब्रह्म । आध्यात्मिक विद्या से, तप से, और आत्मचिन्तन से ब्रह्म की उपलब्धि होती है । १७ - य० मै० आ० ४|४ १८ 1 अहिंसा सत्य वचनमानृशंस्यं दमो घृणा । एतत्तपो विदुर्धीरा न शरीरस्य शोषणम् । • महा० शान्तिपर्व १८६१८ किसी भी प्राणी की हिंसा न करना, सत्य बोलना, क्रूरता को त्याग देना मन और इन्द्रियों को संयम में रखना, तथा सबके प्रति दया भाव रखना, इन्हीं को धीर ( ज्ञानी) पुरुषों ने तप माना है । केवल शरीर को सुखाना ही नहीं है । १५ देव द्विज गुरु प्राज्ञ-पूजनं शौचमार्जवम् । ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ||१४| देवता, ब्राह्मण, गुरु एवं ज्ञानीजनों का पूजन, पवित्रता सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा - ये शारीरिक तप हैं । १६ ५५३ अनुद्व ेगकरं वाक्यं सत्यं प्रिय हितं च यत् । स्वाध्यायाभ्यसनं चैव' वाङ्मयं तप उच्यते ।।१५। उद्देग (अशान्ति ) न करने वाला, प्रिय, हितकारी यथार्थ सत्य भाषण और स्वाध्याय का अभ्यास- ये सब वाणी के तप कहे जाते हैं । मनः प्रसादः सौम्यत्त्वं मोनमात्मविनिग्रहः । भावसंशुद्धिरित्येतत् तपो मानसमुच्यते || १६ | -भगवद्गीता ११ मन की प्रसन्नता, सौम्यभाव, मौन, आत्म-निग्रह तथा शुद्ध भावना- ये सव मानस तप कहे जाते हैं । श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरैः । अफलाकाङ्क्षिभियुक्तः सात्त्विकं परिचक्षते ॥ १७॥
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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