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________________ ५४६ परिशिष्ट २ ८३ मा मुज्झह ! मा रज्जह ! मा दुस्सह ! इट्ठ ! निट्ठअट्ठेसु । . थिरमिच्छह जइ चित्तं, विचित्तं, विचित्तझाणापसिद्वीए। . . मा चिट्ठह ! मां जंपह ! मा चिंतह ! किं वि जेण होई थिरो। अप्पा अप्पंमिरओ, इणमेव परं हवे झाणं । -द्रव्य संग्रह हे साधक ! विचित्र ध्यान की सिद्धि से यदि चित्त को स्थिर करना चाहता है, तो इष्ट अनिष्ट पदार्थों में मोह. राग और द्वेप मत कर । किसी भी प्रकार की चेष्टा, जल्पन व चिन्तन मत कर, जिससे मन, स्थिर हो जाये । आत्मा का आत्मा में रक्त हो जाना ही उत्कृष्ट ध्यान है। ८४ मितेन्द्रियस्य धीरस्य प्रशान्तस्य स्थिरात्मनः । सुखासनस्य नासाग्र-न्यस्तनेत्रस्य योगिना ॥ .. -तत्त्वानुशासन ३७ ध्यान के इच्छुक योगी को योग के आठ अंगों को अवश्य जानना चाहिए, यथा१-ध्याता-इन्द्रिय और मन का निग्रह करने वाला। २-ध्यान- इष्ट विपय में लीनता । ३-फल-संवर-निर्जरा रूप । ४--ध्येय-इष्ट देवादि । ५- यस्य-ध्यान का स्वामी। ६-यत्र-ध्यान का क्षेत्र । ७-यदा-ध्यान का समय । ८-ध्यान की विधि। झाण जोगं समाहटु कायं विउसेज्ज सव्वसो --सूत्रकृतांग ८।२६ ध्यान योग का अवलम्बन कर देहभाव का सर्वतोभावेन विसर्जन करना चाहिए।
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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