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________________ परिशिष्ट २ ५४७ ७३ यस्य चित्तं स्थिरीभूतं स हि ध्याता प्रशस्यते । -ज्ञानार्णव पृ० ८४ जिसका चित्त स्थिर हो, वही ध्यान करने वाला प्रशंसा के योग्य है। ७४ वीतरागो विमुच्यते, वीतरागं विचिन्तयन् । -योगशास्त्र ।१३ - वीतराग का ध्यान करता हुआ योगी स्वयं वीतराग होकर कर्मों से या वासनाओं से मुक्त हो जाता है ! ७५ उपयोगे विजातीय - प्रत्ययाव्यवधानभाक् । शुभकप्रत्ययो ध्यानं, सूक्ष्माभोगसमन्वितम् || --द्वात्रिशद्वात्रिंशिका १८।११ स्थिर दीपक की लौ के समान मात्र शुभ लक्ष्य में लीन और विरोधी लक्ष्य के व्यवधान रहित ज्ञान, जो सूक्ष्म विषयों के आलोचन सहित हो, उसे ध्यान कहते हैं। ७६ मोक्षः कर्मक्षयादेव स चात्मज्ञानतो भवेत् । ध्यानसाध्यं मतं तच्च, तद्ध्यानं हितमात्मनः ॥ . -योगशास्त्र ४१११३. कर्म के क्षय से मोक्ष होता है, आत्म ज्ञान से कर्म का क्षय होता है और ध्यान से आत्म ज्ञान प्राप्त होता है । अतः घ्यान आत्मा के लिये हितकारी माना गया है। संगत्यागः कषायाणां, निग्नहो व्रतधारणम् । मनोऽक्षाणां जपश्चेति, सामग्री ध्यानजन्मनि ॥ -तत्त्वानुशासन ७५ परिग्रह का त्याग, कषाय का निग्रह, व्रत धारण करना तथा मन और इन्द्रियों को जीतना-ये सब कार्य ध्यान की उत्पत्ति में सहायता करने वाली सामग्री है। ७८ वैराग्यं तत्वविज्ञानं, नम्रन्थ्यं समचित्तता। परिग्रहो जपश्चेति, पञ्चैते ध्यानहेतवः ॥ .. ~बृहद्रव्यसंगृह संस्कृत टीका, पृ० २८१ . ७७
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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