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________________ जैन धर्म में तप सो पुण काउस्सग्गो दव्वतो भावतो य भवति । दव्यतो कायचेट्ठा निरोहो, भावतो काउस्सग्गो माणं ।' वह कायोत्सर्ग भी द्रव्य एवं भाव से दो प्रकार का होता है । द्रव्य-काय चेष्टा का निरोध और भाव - धर्म एवं शुक्ल ध्यान में रमण करना प्रथम शरीर की चंचलता एवं ममता का त्याग कर जिनमुद्रा में स्थिर खड़ा होना चाहिए, यह कायचेष्टा निरोध है । उसके आगे धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान रमण करना चाहिए। मन को जब पवित्र विचारों में, उच्च संकल्पों में बांधा जायेगा तभी वह शरीर पर होने वाले प्रहार व वेदना के कप्ट से अनुभव : शुन्य रह सकता है | अतः कायोत्सर्ग में मुख्य बात ध्यान की है। ध्यान की. भूमिका तैयार करने के लिए ही प्रथम द्रव्य कायोत्सर्ग किया जाता है फिर द्रव्य से भाव में प्रवेश करना होता है । यही भाव कायोत्सर्ग का प्राण है कायोत्सर्ग को चमत्कारी बनाने वाला तत्त्व ध्यान ही है । इसी ध्यान युक्त कायोत्सर्ग को सब दुखों से मुक्ति दिलानेवाला कहा है- काउस्सगं तओ कुज्जा सम्यदुक्खविमोक्खणो - यह सब दुःख विमोचक कायोत्सर्ग कौन सा है ? भाव कायोत्सर्ग ! ध्यान कायोत्सर्ग ! ५१६ कायोत्सर्ग के चार प्रकार कायोत्सर्ग के द्रव्य भाव भेद का स्वरूप समझाने के लिए आचायों ने उसके चार प्रकार बताये हैं १ उत्यित - उत्थित कायोत्सर्ग के लिए खड़ा होने वाला सापक जब शरीर से सड़ा हो जाता है तो उसके साथ उसका मन अन्तरचेतना भी सड़ीजागृत रहती है। अशुभ ध्यान का त्याग कर वह शुभ प्रशस्त ध्यान में तीन होता है। इस प्रकार प्रथम श्रेणी का साधक तन एवं मन- द्रव्य एवं नाव दोनों दृष्टियों से उति होता है । २ उत्थित निषिष्ट - कुछ बकरीर से बड़े जोकर द आवश्यक यूनि સ્થાપન ३ देखिएम કર ० १०२ (उपाध्याय श्री अमरमुनि)
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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