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________________ व्युत्सगं तप . . ५११ जीवे निव्वुहियए ओहरिय भरव्व भारवहे पसत्य साणोवगए सुहं सुहेणं विहरई । ____ संयम जीवन में प्रमाद वश साधक कभी जो इधर-उधर भटक जाता है, और दोप सेवन कर लेता है-जाने अन जाने जो भूलें कर बैठता हैकायोत्सर्ग करने से उन सब भूलों और दोपों की शुद्धि कर लेता है । आत्मा को निर्मल एवं निप्पाप बना लेता है। निर्मल आत्मा अपने आपको बहुत हलका और प्रसन्न अनुभव करता है। कल्पना करिए-~जेठ का महीना हो, मंजिल दूर हो, ऊँचा-नीचा ऊबड़-खाबड़ रास्ता हो, और सिर पर मन भर की गठरी लिए कोई मजदूर चल रहा हो। बोझ से सिर की नसें टूट रही हों, पसीने से तर-बतर हो रहा हो, दम फूल रहा हो। उस समय में कोई आदमी उस मजदूर का बोझ उतार कर अलग रखवा दे, उसे शीतल छाया में विश्राम करने देवे-तो उसे कितना आनन्द होगा और कितनी प्रसन्नता तथा हलकापन उसे अनुभव होगी। मजदूर की भांति पापों के भार से दबी मात्मा की स्थिति है। वह पापों के भार से इतनी सेदखिल हो रही है कि यदि उसे क्षणभर भी कहीं हलकापन अनुभव हों, विधान्ति मिले तो वह बड़ी प्रसन्नता अनुभव करेगी ! कायोत्सर्ग द्वारा पापों का वह भार दूर हटा दिया जाता है । आत्मा हलका हो जाता है। उसके भीतर प्रशस्त ध्यान की शीतल धारा वहने लगती है और प्रसन्नता की उनियां उठने लगती हैंआत्मा स्वयं को बड़ा हो सुखमय एवं आनन्द मय अनुभव करने लगता है। देह-बुद्धि का विसर्जन कायोत्सर्ग पर दो शब्दों के योग से बना है-इसमें गाय और उत्सर्गये दो शब्द हैं। दोनों सा मिलकर अचं होता है काया का त्याग । प्रश्न होता है काया का याग तब तक की हो सकता है जब तक प्राण है ! प्रागधारण . के लिए तो शरीर आवश्यक है। यहां समाधान मह कि काया का त्याग करने का अपं है. काया की ममता का त्याग । योकि यह को कई बार स्पष्ट किया जा सका हैदारीर, अधि आदि बंधन नहीं है, बंधन - १ खराध्ययन २६।१२
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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