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________________ ध्यान तप ४८५ . । धर्म ध्यान के अन्य प्रकार. अभी जो धर्मध्यान का स्वरूप उसके लक्षण, आलंबन और अनुप्रेक्षाएं बताई हैं-वह सभी आगमों में व प्राचीन ग्रन्थों में विस्तार के साथ प्राप्त होता है। भगवान महावीर के पश्चात्वर्ती युग में ध्यान के विषय में और भी गहरा चिंतन चला, उसके अनेक साधनों पर योगियों ने, ध्यानी मुनियों ने विचार किया और कई नए आलम्बन, नये स्वरूपों व साधनों का भी समावेश . ध्यान परम्परा में किया है। ध्यान की विधि को सरल और सहज साध्य वनाने के लिए कई प्रकार की साधनाए आचार्यों ने बताई है। यहां हम उन पर भी संक्षेप में विचार कर लेंगे। ध्यान में मुख्य तीन वस्तुएं हैं, ध्याता, ध्यान और ध्येय । ध्याता का अर्थ है ध्यान करने वाला, ध्यान का अधिकारी ! ध्यान का अर्थ है-तल्ली नता, एकाग्रता और ध्येय का अर्थ है-इष्टदेव ! जिसका ध्यान किया जाय वह ! इन तीनों की पवित्र भूमिका है। ध्याता को सर्वप्रथम अपने हृदय को शांत, पवित्र एवं स्थिर बनाना होता है । क्योंकि चंचल चित्त वाला ध्यान का अधिकारी नहीं हो सकता। आंखें मूंद कर बैठ गया, आसन जमा लिया, किन्तु मन स्थिर नहीं हुआ, वह कहीं का कहीं भटकता रहा तो ध्यान कैसे होगा ? वास्तव में आसन स्थिर करने में ही नहीं, मन स्थिर करने से न्यान होता है । कहा है यत्य चित्तं स्थिरीभूतं स हि ध्याता प्रशस्यते । जिसका चित्त स्थिर हो गया हो वही वास्तव में ध्यान का अधिकारी होता है । ध्यान की पवित्रता के विषय में बताया है-- . जितेन्द्रियस्य घोरस्य प्रशान्तस्य स्थिरात्मनः । सुखानस्य नासाग्रत्यत्तनेयस्य योगिनः ॥२ जो योगी जितेन्द्रिय हैं, घोर है, शांत है, स्थिर आत्मा वाला है,नासाग्र-- . - १ ज्ञानार्णव पृ० २४, २ ध्यानाप्टक,
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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