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________________ .. ४७० . जैन धर्म में तप ध्यान और वैराग्य रूप लाठी यदि हाथ में रहेगी तो दुर्विचार दूर से हो हट जायेंगे पास में नहीं फटक सकेंगे और वे हृदय को अपवित्र व चंचल नहीं बना सकेंगे ! ___तो स्वाध्याय और ध्यान की लट्ठी से दुर्विचार व विकल्प दूर भग जाते हैं और मन स्थिर व पवित्र बना रहता है । स्वाध्याय के विषय में पिछले प्रकरण में काफी प्रकाश डाला जा चुका है यहां ध्यान के सम्बन्ध में ही विशेष विचार करना है। ध्यान की परिभाषा मन की एकाग्र अवस्था का नाम ध्यान है। विचारकों ने मन के कई भेद बताये हैं- कोई मन पागल के जैसे इधर-उधर भटकता रहता है-वह विक्षिप्त मन कहलाता है । कोई मन विषयों की भाग दौड़ में कभी स्थिर होता है कभी चंचल होता है-उसे पातायात मन कहते हैं । विषयों से हटकर मन कभी-कभी थोड़ा सा स्थिर भी हो जाता है किन्तु उसमें शांति नहीं रहती वह श्लिष्ट मन कहलाता है तथा जो मन प्रभु भक्ति में, आत्मचिंतन में एवं सद् शास्त्रों के स्वाध्याय मनन में निर्मल एवं स्थिर बन जाता है उसे सुलीन मन कहा गया है । सुलीन मन ही वास्तव में ध्यान का अधिकारी बन सकता है। ध्यान का सीधा सा अर्थ है- मन की एकाग्रता ! आचार्य हेमचन्द्र ने बताया है- घ्यानं तु विषये तस्मिन्लेफप्रत्ययसंतति:१ अपने विषय में (ध्येय में) मन का एकाग्र हो जाना ध्यान है। आचार्य भद्रबाहु ने भी यही बात कही है-चित्तस्सेगग्गया हवा झागं.-२ चित्त को किसी भी विषय पर स्विर करना, एकाग्र करना ध्यान हैं । साधारण वोलचाल की भाषा में भी हम कहते हैं-~'इस पर ध्यान दो। आपका ध्यान किधर है ?" इन शब्दों से यही भाव प्रकट किया जाता है कि आपके मन का झुकाव, मन का लगाव . किधर है ! मन जहां भी, जिस विषय में लग गया वहां वह जब तक स्थिर १ अभिधाननितामणि कोप २४ २ आवश्यक नियुक्ति १४५६
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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