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________________ . जैन धर्म में तप . जेट्ठो न परियाएण तो वन्दे--' शास्त्र का प्रवचन करने वाला बड़ा है, दीक्षा पर्याय मात्र से कोई बड़ा नहीं होता है । अतः पर्याय ज्येष्ठ भी अपने कनिष्ठ किन्तु शास्त्र के व्याख्याता को नमस्कार करें-यह आचार्य भद्रवाहु का कथन है, जिसमें धर्म कथा करने वाले की ज्येष्ठता बताई गई हैं। . चार प्रकार की धर्मकया धर्म कथा के चार भेद बताये गये हैं आक्षेपणी-स्याद्वाद-ध्वनि से युक्त अपने सिद्धान्तों का मंडन करने वाली तथा उपदेश आदि आक्षेपणी कथा कहलाते हैं। विक्षेपणी-अपने सिद्धान्त के मंडन के साथ दूसरे सिद्धान्त में रहे हुए दोपों का वर्णन कर स्व-सिद्धान्त में दृढ़निष्ठा पैदा कराने वाली विक्षेपणी . कथा है । स्व-सिद्धान्त का ज्ञाता होना सरल है, पर-सिद्धान्त का ज्ञाता होना कठिन है, उसमें भी पर सिद्धान्त का खण्डन करना और भी कठिन है । क्यों कि दूसरे मत के खण्डन करने से परस्पर द्वेप, ईर्ष्या आदि बढ़ने की संभावना रहती है, साधारण सी बात पर भी लोग वक्ता को उलटे 'निंदक' कहने लग जाते हैं, इस कथा का प्रवचन करते समय वक्ता को बहुत ही कुशलता, दक्षता एवं विवेकशीलता रखनी होती है ताकि श्रोताओं पर प्रवचन का सुन्दर प्रभाव पड़े ! और दूसरों में भी द्वेप न फैले । संवेगनी-कर्मों के विपाक फलों की विरसता बताकर संसार से वैराग्य उत्पन्न करने वाली कथा संवेगनी है। निर्वेदनो-हिंसा-असत्य आदि के कटुफल बताकर अहिंसा सत्य, ब्रह्मचर्य . . का उपदेश देकर व्यक्ति को त्याग मार्ग की ओर मोड़ने वाली कथा निवेदनो इस प्रकार स्वाध्याय के ये पांच भेद बताये हैं। इनके आधार पर साधक अपना जीवन अधिक से अधिक स्वाध्याय तप में लगाकर श्रत को आराधना करता है, ज्ञान की उपासना करता है, इससे ज्ञान का दिव्य प्रकार प्राप्त करता हुआ जीवन को सफल बनाता है । १ आवश्यक नियुक्ति ७.४
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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