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________________ ४६० . जैन धर्म में तप जाते थे । और कण्ठस्थ शास्त्र तभी याद रह सकते थे जब उनका बार-बार स्वाध्याय-चिन्तन मनन, परावर्तन आदि किया जाता हो । जो प्राचीन विशाल साहित्य आज लुप्तप्रायः हो गया है उसका भी मुख्य कारण है-स्वाध्याय . का अभाव । और आज जो कुछ विद्यमान है वह भी स्वाध्याय के बल पर ही। वर्तमान के आगम स्वाध्याय की ही देन है ! ज्ञान को स्थिर, सुरक्षित एवं. जनोपयोगी बनाने की दृष्टि से जैन आगमों में स्वाध्याय के पांच भेद बताये गये हैं। वहां सिर्फ शास्त्र पढ़ना ही स्वाध्याय नहीं, किन्तु उस पर विचार करना, पढ़े हुए का स्मरण करना, और यहां तक कि प्रवचन आदि के रूप ... में ज्ञान का कथन करना भी स्वाध्याय की कोटि में माना गया है। स्वाध्याय के पांच प्रकार यो वताये गये हैं___ समाए पंचविहे पण्णत्ते तं जहा वायणा, पडिपुच्छणा, परियट्टणा, अणु पेहा, धम्मकहा।' स्वाध्याय पाँच प्रकार के हैं- १ वाचना, २ पृच्छना, ३ परिवर्तना ४ अनुप्रेक्षा, ५ धर्मकथा। . १ वाचना-सद्ग्रन्थों को पढ़ना, उनका वाचन करना ! यदि स्वयं पढ़ने में असमर्थ हों तो दूसरों से सुनना, अथवा दूसरों को सुनाना यह सब वाचना . में आ जाता है । नियमपूर्वक प्रतिदिन कुछ-न-कुछ वाचन करना चाहिए। जो व्यक्ति पढ़ने का शौकीन होता है, जिसे पढ़ने में आनन्द आता है वह बिना अधिक श्रम के ही अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लेता है । नियमित १५ मिनट पढ़ते रहने से कितना पढ़ सकते हैं यह अभी बताया ही जा चुका है अतः स्वाध्याय के प्रथम अभ्यास में वाचन करने की आदत बढ़ानी चाहिए, नियमित रूप से धार्मिक पुस्तकों का अध्ययन करते रहना चाहिए। . वाचना स्वाध्याय क्रमका वर्णन करते हुए प्राचीन आचार्यों ने कहा . है-साधक को पहले अपने आचार मूलक प्रत्यों को पढ़ना चाहिए, जिनसे फि आचार विधि या सदाचार की प्रेरणा मिले, उसका ज्ञान हो। उस बाद स्वदर्शन विषयक ग्रन्यों को पढ़ना चाहिए ताकि शुद्ध आचार के साथ .. १ भगवती मूग २५७ तथा स्थानांग एवं उववाई आदि में भी
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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