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________________ ४३८ जैन धर्म में तर विनय कई प्रकार की भावना से किया जाता है। एक प्राचीन भावार्य ने इस विषय का स्पष्टीकरण करते हुए कहा है लोगोवयारविणो अत्यनिमित्तं च कामहे ।। भयविषय-मुरविणो बिगो सलु पंचहा होई ।' विनय करने के पांच उद्देश्य हैं.---१. लोकोपचार अर्थात् लोक आवहार निभाने के लिये माता-पिता, अध्यापक आदि का विनय करना २. वर्ष विनय-धन आदि के लालन से सेठ, मैनेजर या बड़े आदमी की सेना, पुजा करना । ३. काम विनय-कामवासना की पूर्ति हेतु स्त्री आदि की आजीजी करना, उनकी प्रशंसा करना। ४. भय विनय-अपराध होने पर मजिस्ट्रेट, कोतवाल, शिक्षक आदि का विनय करना। ५. गोक्ष विनाआत्म कल्याण एवं ज्ञान प्राप्ति के लिये गुरु आदि का विनय करना। इनमें प्रथम चार प्रकार का विनय-रान्यता की सीमा तक तो उनित है किन्तु सीमा के बाहर हो चापलूसी बन जाते हैं। मोक्ष के लिये सिया जाने वाला विनय वास्तव में विनय ता है, चमि. उसमें प्रवेश गविस रहता है और वृत्तियां शुद्ध ! उपसंहार इस प्रकार विनय का सोनोग-विवेचन जनधर्म में प्रस्तुत किया है। आगनों में लान-स्थान पर इसके आवरण का उपदेन ही नहीं, बलि मुन्दर विधि भी बनाई गई है। पिनयगील को समस्त योगसाओं का पार और पूर्व wिerint अधिकारी माना गया है। स्थानामनु में जल in अली को अधिकारी और तीनको मनकारी सार है पहार निदिनtratना भी . मी मानिने मामले से जहा... दिनो, गदिमा दिस्मिता।
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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