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________________ जैन धर्म में तप ही उसका स्वस्थान है, उसी का नाम किसी ने 'मोक्ष' रखा है, किसी ने 'मिद्धि' और किसी ने 'परमपद' या 'निर्वाण ।' अनादिकाल से आत्माराम ससार पथ की भूल-भुलैय्या मे भटक रहा है । इसे अभी तक अपना असली स्वरूप, अपना असली स्थान मिला नहीं है। यह चल रहा है,किन्तु कभी सौ योजन पूरव मे चलता है,तो फिर कभी वापिस नौटकर दो मी योजन पश्चिम मे आ जाता है। कभी उत्तर की यात्रा पर चलता है, सौ-दो-सौ योजन पार करता है तो फिर दक्षिण की तरफ मुंहकर लेता है, फल यह होता है कि जिन्दगी बीत गई, एक नही, कई जिन्दगिया बीत गई फिर भी रहा वही का वही- "ज्यो तेली के बल को घर ही कोस पचास" बस, यह यात्री तेली के बैल की तरह ही चक्कर काटता रहा है । एक वार कुछ यात्री हरिद्वार मे गगा के किनारे गये, सध्या का समय था, धूमते-घूमते एक तट पर लगी नौका के पास पहुचे । सब ने निश्चय किया, चलो नौका मे बैठकर अमुक गाव चलें, रात भर चलते रहेगे तो सुवह अपनी मजिल पर पहुच जायेंगे। सव यात्री नौका मे बैठ गये, और चार जवान आकर डटे डाड हिलाने । रातभर डाड हिलाते रहे, खूब ताकत लगा फर, मस्तूल भी हवा मे हिलता रहा, सुवह जव मुह उजाला होने लगा और यात्रिणे ने आंख खोलकर देखा कि मामने एक सुन्दर नगर है, वडा सुहावना घाट है और लोग घाट पर नहाने को आ रहे हैं, उनकी नौका भी घाट के पाम सही है तो खुशी से नाच उठे। लोगो से पूछा- यह कौन सा गाव है भाई " लोगो ने कहा-'हरिद्वार !' यात्री चौके-"हैं ? हरिद्वार से तो हम रात को चले ही थे, गत भन नौका चलाकर क्या अभी तक हरिद्वार ही पहचे हैं।" मव यात्री एक दूसरे का मुंह ताकने लगे । तभी घाट पर बडे एक म्नानार्थी ने कहा- "मूगों। नौका तो अभी नगर में बंधी है, चले गरा तुम्हाग मिर' .." मागे नॉन----'ओ हो ! यही तो भूल रह गई। नगर तो मोना ही नही, नौ चलेगी और यहां पहनेगी " ?" मनुपगी जीवन नीरा भी मी प्रसार अनान और मोह के लगर में
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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