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________________ प्रायश्चित तप लग जाते हैं उनकी विशुद्धि की जाती है। यह प्रायश्चित्त लेने के बाद गुरु के पास आलोचना करने की आवश्यकता नहीं रहती। प्रापिश्चत्त : आगे क प्रायश्चित्त के तीसरे भेद में उक्त दोनों का समन्वय किया गया अतः उसका नाम है-'तनुभयाह' । जिस दोप में आलोचना एवं प्रति दोनों करने से शुद्धि होती हो उसके लिए इन दोनों का विधान है। एकन्द्रियादि जीवों का गंधट्टा हो जाने पर उक्त प्रायश्चित्त लिगा जा अर्थात् पहले मिच्छामि दुपकर बोला जाता है, और फिर गुरु के पास - आलोचना भी की जाती है। यियेकाह-प्रायश्चित्त का चोपा भेद है। विवेक का अर्थ हैछोड़ना ! किसी वस्तु का त्याग कर देने से ही जिस दोष की शिशुद्धि हो उसे वियफाहं प्रायश्चित्त कहते हैं। जैसे आधार आदि आहार मा है तो उसको अवश्य ही पठना पड़ता है ऐसा करने से ही उस यो विशुद्धि होती है। पुरसहि-पांचा प्रायश्चित्त है । चुनाग का अर्थ हैवार को रोककर स्थिर होकर रेप पस्तु में उपयोग लगाना । नदी fe सो में, मागं चलने में यदि असावधानी कार कोई दोष ना हो तो उसका प्रायश्चित करने के लिए ध्यानकायोता किया जाता सानोमन करने से उस दोष को पिबुद्धि हो जाता है। पान fruit पुरागाई-मापनिता कहा जाता सपाहपहप्रालि RETimकरने में जिनको शुधिो . कनिए आगमी fafrir करना माई-बापति
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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