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________________ जैन धर्म में तप ४१६ जो व्यक्ति जैसा बोलता है, यदि वैसा करता नहीं तो उससे बढ़कर और मिथ्यादृष्टि कोन होगा ? अगर हम 'मिच्छामि दुक्कटं' शब्द बोलते समय इसके शब्दार्थ एवं भावार्थ पर ध्यान देते रहे तो उच्चारण के साथ-साथ सहज ही भावना में एक स्पन्दन उठता रहेगा जो मन को शुद्ध बनाता रहेगा | आचार्य भद्रबाहू ने उसके एक-एक शब्द का अर्थ करते हुए बताया है 'मि' मिउमद्दवत्ते, 'मि' त्ति 'छ' त्ति य दोसाण छायणे होइ । त्ति य मेराए ठिओ, 'दु' त्ति दुर्गांछामि अप्पाणं ॥ 'क' त्ति कडं मे पावं, एसो 'ड' त्ति य उवेमि तं उवसमेणं । मिच्छादुक्कड - taraरत्यो 'मि' -- अर्थात् मृदुता और मार्दवता । 'छ'- अर्थात् दोषों का छादन- बँकना । 'मि'- अर्थात् चारिवा मर्यादा में रहना । 'दु' अर्थात् दुष्कृत को विदा करना । 'क' अर्थात् कृत-पाप कर्म को स्वीकार करना '' अर्थात् उपशम भाय के द्वारा पाप का प्रतिक्रमण करना । समासेणं ॥ सम्पूर्ण पद का अर्थ हुआ में मन को नम्र और सरन बनाकर की मर्यादा में रहता हुआ अपने दोषों करता हूँ । करता है और उनसे दूर मार के साथ मन में यह ही वह राष्ट्र है, जो पायका प्रति में समितिबुद्धि में दोष अपने पापों को रोकता है। उनकी तो इस प्रकार सत्य जगना चाहिए ! करके भगा देता है।
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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