SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 456
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४०३ प्रायश्चित्त तपं वह मोध नहीं करता, किन्तु अपनं दोप को हर स्थिति में शुद्धि करना चाहता है। ८ दान्त--इन्द्रियों का दमन करने वाला --प्रायश्चित्त रूप में कठोर तपश्चरण आदि मिलने पर भी उसफा पालन करने को तैयार रहता है, इन्द्रिय-विपयों की अनासक्ति के कारण वह प्रायश्चित्त रो न तो करता है और न अन्य प्रकार की लोलुपता रहती है अतः ऐसा व्यक्ति आलोचना कर सकता है। ६ अमायो-सरल हृदय वाला व्यक्ति कभी अपने पापों को छिपाता नहीं। वह खुले दिल से हर समय अपना दोष स्वीकार करने को तैयार रहता है १० अपश्चात्तापी-अपना दोष स्वीकार कर लेने पर जिसपो मन में कमी पश्चात्ताप नहीं होता कि मैंने ऐसा क्यों स्वीकार कर लिया ? यदि छुपाया सता तो सपा हो जाता ? इस प्रकार आलोचना के बाद में अनुताप न करने वाला आलोचना कर सकता है, और बालोचना करके वह हृदय में हुलापन अनुभव करता। नहारणों पर सूक्ष्म पिचार पिया जाय तो अनुभव होगा कि प्रत्येक कारण सा है जो व्यक्ति के जगाई दर को गुरेदता राना है। इनमें में कोई भी गुप यदि किसी में होगा तो पहले तो यह पाप को भोर पड़ने में ही संकोच एरेगा, भूल, अमान का परिस्थिति मग पाप कर लिया हो या फिर गुपचाप नहीं पर सका, उमा हुदा मीनर-सी-भीतर मेरिस शरमा गोगा जिन! गुरजनों में नमक्ष ! अपना पाप प्ररट कर और उIT वाले ! ना AT Tमारों में fir. मा मा टोपीय मग, मासा में निम मिला और प्रतिकार हो या प्रा प्रापEET f ami लामा gr mer
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy