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________________ प्रायश्चित्त तप उसका कर्ज चुकाने के लिए गांधी जी ने घर से एक तोला सोना सुराया और दुकानदार. का कर्ज चुका दिया। फर्ज तो चुक गया, किन्तु चोरी के पाप से हृदय भीतर ही भीतर झुलसने लगा। पश्चात्ताप से हृदय वैचेन हो उठा, जैसे भीतर में भयंकर आग जल रही हो। वे अपनी इस पीड़ा को सह नहीं सके । मन हुआ अभी जाकर पिताजी के चरण पढ़ लें और अपराध स्वीकार कर क्षमा मांग लें। किन्तु पिता के सामने जाने में शर्म भी बाती थी, आखिर एक पत्र लिखकर उन्होंने अपनी चोरी की घटना बताई। स्वयं को धिक्कारा और भविष्य में कभी भी ऐसा अपराध न करने का दृढ़ संकल्प किया । समतदार पिता ने भी उन्हें प्रेमपूर्वक माफी देदी । इस पश्चात्ताप के बाद गांधीजी ने कभी भी पुनः चोरी नहीं की। यह है पश्चात्ताप रूप प्रायश्चित्त का परिणाम ! दंड में ऐसा हृदय परिवर्तन नहीं हो सकता। इसलिए शास्त्रों ने साधक को अपने दोगना स्वयं माय शिनत करने के लिए प्रेरित किया है। अन्त:प्रेरणा से प्रेरित साधन जय गुरुजनों के समक्ष प्राता है तभी गुगजन उसे प्रायश्चित ही है। प्रतिसेवना धनाम शेष-रोयन पार पनि भून मरना, अपराध करना, दोष गेवन करना मनुष्य को मामाला मनावति है। जैन मनोविज्ञान के अनुसार हर सामान्य प्राणी हम मनोवधि ना होता है, कोई भी संसारी मनुष्य कभी भी अपराध पर मरता, पिनी गोमोई गारंटी नाही यमोंकि किस समय ग. मन में प्रमाद व कलाम नासा प्रवन होछे, कोरवा दोषीपनगरमा मदन नही पियेगी, जानी मनुष्य उगम आयेग र ध नियंत्रण घ.म. गामा , विली जग प्रकार में साक्षी को लेकर या जाता है । आपुfor waifeोगी का Rritr मोटो श्रीमान र माता FAIR Afriमाई म Trafनयमान
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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