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________________ प्रतिसंलीनता तप की शालाओं में ठहरते थे, वहीं ध्यान समाधि लगाकर साधना करते थे और फिर तीर्थकरत्व प्राप्त करने के बाद प्रायः नगर के बाहर स्थित उद्यानों या किसी विशेष परिस्थिति में आपणशाला एवं खाली सभागृहों में ही ठहरते थे। यही परम्परा समस्त तीर्थकरों की रही है । आवास क्यों नहीं? जैन गृहस्थ साधकों ने अपनी अध्यात्म साधना के लिए उपाश्रय, पोषध शाला एवं मन्दिर आदि का निर्माण अवश्य किया है, मन्दिर में अपने मुक्त भगवान को भी विठाया है, किन्तु अपने जीवित भगवान के लिए, अथवा जीवित श्रमण के लिए उसने कभी किसी आवास का निर्माण नहीं किया--- यह जैन धर्म का एक सैद्धान्तिक सत्य है । जैन श्रमण अपने लिए आवास आदि का निर्माण क्यों नहीं करवातेइसके उत्तर में सिद्धान्त-सम्मत दो तथ्य हैं.. १ गृह निर्माण आदि में होने वाली हिंसा । २ गृह आदि के साथ जुड़ने वाला ममत्व बन्धन । यदि साधु अपने लिए गृहनिर्माण आदि करवाता है, उद्यान, विहार व प्रासाद आदि बनवाता है तो उस निर्माण में होने वाली जीवहिंसा आदि का प्रेरक कारण एवं निमित्त श्रमण होता है, अत: वह भी हिंसा का भागी होता है, जो कि उसके महिमा महाव्रत के सर्वथा प्रतिकूल है। दूसरा कारण है, जो श्रमण अपने लिए आश्रम, मठ आदि बनवायेगा उसका मन भी उसमें अवश आतक्त होगा। उनके साथ ममत्व मात्र हंगा, ममत्व भाय परिग्रह है, जो कि अपरिग्रही अमण धर्म मे विपरीत है। इन दो शान्तिका कारणों से प्रारम्साले आननक जैन अमन अरने लिए आराम आदि के निर्माण का त्यागी रहा है। भगवान महावीर के जीवन का एक प्रसग Cr जब ये माधना काल मे प्रारम वर्ष में दूरसक पापी आश्रम में आने और यहां से गुमान कार में उस काम को पच्युटी चाल free गातुमांग में गुर ही दिन बीत , बरसात नहीं हो रही थी, भूगो गाने काम को पानी
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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