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________________ प्रतिसंलीनता तप ३७१ काय पर संयम करने से । शरीर एवं मन को अपने अनुशासन में रखने से तथा उन्हें सदा परम विशुद्ध भाव में जोड़े रखने से । काय प्रतिसंलीनता में शरीर के वाह्य संकोच पर ही अधिक बल दिया गया है, इसलिए कछुए का उदाहरण देकर बताया है - कछुआ जैसे अपने अंगों का गोपन करके, संकोच करके सदा निराबाध रहता है, वैसे ही साधक विषय वासनाओं के बीच अपने शरीर का गोपन करके रहे ताकि उनके चंगुल में न फंसे । जैसे कपड़ा खुला होने से शीघ्र ही पानी में पड़ने से भीग जाता है, किन्तु वही खूब कसकर गेंद जैसा बना दिया गया हो और फिर पानी में गिरे तो जल्दी से भीग नहीं सकता । इसी प्रकार काय प्रतिसंलीनता में रहा हुना साधक आसानी से विषयों के वासना रूप पानी में नहीं भींग सकता । विविक्त शय्यासन प्रतिसंलीनता अनगार कौन ? प्रतिसंलीनता तप का चौथा भेद है—विविक्त शयनासन सेवना । इस तप का सम्बन्ध साधक के आवास निवास से हैं । साधक संसार में रहता है, शरीर धारण करता है, शरीर के लिए आहार पानी भी ग्रहण करता है, वस्त्र पात्र आदि भी रखता है, और रहने के लिए आश्रय आवास आदि की भोगवेषणा करता है । चूंकि जैन साधु का रूप बनगार का है । लनगार का अर्थ है न विद्यते अगारं गृहं यस्य सः अनगारः जिसके पास अपना कोई पर (बगार ) नहीं, वह अनगार है । अनगार के पास न अपना कोई घर, मठ, आश्रम व विहार होता है, और न वह अपने लिये कहीं घर, वाश्रम आदि बनवाता है। न किसी नाश्रम वादि के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ता है। इस तरह हष्टि से अनगार-गृह मुक्त होता है । आयम और प्रासाय भारतीय शुषियों को परम्परा में वैदिक और ऋषियों की यो परम्परा चली आ रही है। ऋषि हत्याकाश्रम में निर कपि अपना स्वतन्त्र आश्रम, विकास उनके 1
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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