SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 415
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म में तप वाणी याभी सत्य नहीं हो सकती ! यथार्थ होते हुए भी उसे सत्य का राज. मुकुट नहीं पहनाया जा सकता ! इन भेदों से स्पष्ट होता है कि असल्य फा . परिवार रावण के परिवार (कुनवे) को भांति कितना लम्बा नोड़ा है। सत्य की परिभाषा यद्यपि आनार्य पतंजलि' ने सत्य की परिभाषा बहुत सीमित करती है"सत्यं ययाय वा मनसे ययादृष्ट ययानुमितं यया श्रुतं तथा वामनश्चेति जगा देखा --- सुना, समझा हो, दूसरों को कहते समय मन वचन का वैसा हो प्रयोग करना सत्य है ।" किन्तु सत्य की परिभाषा इस छोटी परिधि में नहीं बन्ध सकती । वास्तव में इन सब से ऊपर सत्य वह है जो सब जगन् के लिए हितकारी हो । जैसा महर्षि व्यास जी ने कहा है यद् भूतहितमत्यन्तं एतत् सत्यं वचो मम ।। जो समस्त प्राणियो के लिए अत्यंत हितकारी हो, वही सत्य है। जैन धर्म में भी वही सत्य, मत्य माना गया है जो समस्त जगत का कल्याण करने ... वाला हो, मिरा में मन की, वाणी की, शरीर की और आगरण की सरलता एवं पवित्रता हो उसे ही सत्य रती सीमा में प्रवेश करने का अधिकार दिया है । इसलिए यह निश्चित तध्य है कि जो कयन क्रोध आदि मनुपित विचारों से दूषित हो. वह सत्य देवता मन्दिर में नहीं चल सकता, जैसे कि दुषित अन्न न ग गत पुरल फल आदि देव मन्दिर में नहीं बढ़ सकते। .. जंग नमों में मान-स्थान पर अगत्य एवं अकुशल बना के लक्षण या हुए मा गगा है अपनी प्रमा, और दूसरों की निंदा करना ना भी गाय का ही एक म। श्रोध आदिको आधुलता गुच करना भी अगाय . १ ज म ग सापना पर३, माण
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy