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________________ . जैन धर्म में तप सत्कर्म में लगा रहता है । इस मन में सक्रियता भी होती है और शांति भी! मानन्द एवं प्रसन्नता का अनुभव करता हुआ यह मन सदा शांत रहता है। ४ स्थिर मन-समाधि ध्यान आदि में शांति के साथ स्थिर हुमा गोगि . जनों आदि का मन स्थिर मन या एकाग्र मन कहलाता है। कुछ भेद के साथ आचार्य हेमचन्द्र ने भी मन की चार अवस्थाओं का । वर्णन किया है इह विक्षिप्तं यातायातं श्लिप्टं तया सुलीनं च। चेतश्चतुःप्रकारं तज्ज :चमत्कारकारि भयेत् ।' १ विक्षिप्तमन-चंचल, विषयों में भटकता हुमा मन ! २ यातायातमन-इधर-उधर दौड़ता हुआ मन । कभी भीतर में जाकर स्थिर होता है और कभी फिर बाहर आगर विषयों में भटकने लगता है। इस चित्त में कुछ-कुछ आनंद की भी अनुभूति होने लगती है। ३ रिलष्टमन-भीतर में स्थिर हुआ। आत्मानुभव के कारण आनन्द एवं प्रसन्नता में लगा हुआ यह चित्त प्राय: आध्यात्मिक विषयों में स्थिर हुभा रहता है। ४ सुलीनमन-धात्मानुभय में अत्यन्त लीन गमाधिस्य गित ! ये अवस्थाए निन के कमिस विकास को गणित करती है, साथ ही मन उत्तरोत्तर स्वस्थ, आत्मनिष्ठ एवं शुभ होता हुआ जय चतुषं दशा में पहुंचता है तो परम योगी या पद प्राप्त कर लेता है। पहले शुद्धीकरण; फिर स्थिरीकरण यह निषित बाल कि मन पवन से भी अमिर नचला है। इसमा निगह कारनामे साना यानु को पाने में भी अमित दुकर हैयापोरिग सुजुकरम् -मी लिए नहीं में बन्दर मा मनन, नही जो मा गुस्साहनी, रोज दोन मादा, ही समुद्रमा मार- अगिरवतीमामी JHARMAmase RAHMomenawina
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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