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________________ ३५० जैन धर्म में तर __ कहते हैं संवत् १३१३ में पंढरपुर में एकदंपती रहते थे जो बड़े हो संतोषी थे। पति, पत्नी से अधिक संतोपी था तो पत्नी पति से भी बढ़कर ! . एक बार दोनों कहीं जा रहे थे । पति (रांका) आगे-आगे चल रहा गा। रास्ते में एक रुपयों की थैली पड़ी दिखाई दी। उसने सोचा--"शायद किसी की गिर पड़ी होगी। इसे देखकर कहीं पत्नी (बांका) का मन न चले" अतः .. उसने थैली पर धूल ढाल दी ! पीछे-पीछे आती यांका ने देखा तो बोलीक्या कर रहे हो ? सकुचाते हुए रांका ने कहा-थैली पड़ी थी,किती का मन विगड़े नहीं अतः धूल डाल रहा हूँ । वांका (पत्नी) ने गम्भीर होकर कहा-~"मिट्टी पर मिट्टी डालने की जरूरत क्या है ? आप इसे धन समझते ही नगों हैं ? यह तो मिट्टी है !" तो यह संतोष की चरम स्थिति है, लोभ विजय गो पराकाष्ठा हैजब सोने में और मिट्टी में, तृण में और मणि में समान बुद्धि बन जाती है ---- सम लेट्ठ फंधणा मिट्टी में ठेले में और सोने मे टुकड़े में श्रमण समान यति रखते हैं। यह वृत्ति संतोप से आती है, लोम को जीतने स बाती है । और लोभ को जीतने का तरीका है-भोग्य वस्तु को असार एवं महत्त्य हीन अकिंचन-तुच्छ समझना ! ___ संतुष्ट व्यक्ति के हृदय में यदि कभी कभार लोग की लहर उठ भाती है तो वह तुरन्त उसका निग्रह भी कर लेता है। नीम के पीछे खोदता नहीं, शिन्तु मन को मोर लेता है। न्योंकि उसे अनुभव सुना वस्तु में नहीं, आत्मा में है ! लोन करने में अधिक बुरा होगा, जैसे गुजली को जलाने से अधिक जलन होती है, अतः पराओं को गुजली मिटाने का तरीका यही है कि उन्हें छेदा ही न जाय । यही परम गंतोष का मार्ग है। लोग प्रतिगसीनता को माधना है। योग प्रतिसलीनता योग की परिभाषा frieीनता तर या सीमा में योग गितीनता। गोगमा १ औतार पुन
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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