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________________ ३४८ जैन धर्म में तप एवं निन्दित समझा जाता है । इसीलिए भगवान महावीर ने कहा हैलोहो सव्वविणासणी - लोभ सब गुणों का विनाश करने वाला - विध्वंसक है | यह वह चूहा है, जो रात-दिन सद्गुणरूपी वस्त्रों को कुतर-कुतर काटता रहता है । लकड़ी में दीमक लग जाती है तो लकड़ी को भीतर-ही-भीतर से खोखला कर डालती है. वैसे ही लोभ को दीमक जिस-जिस जीवन में लग गई उसे भीतर-ही-भीतर घुनती जायेगी और जीवन सद्गुणों से हीन, सूना और खोखला हो जायेगा । लोभी मनुष्य लोभ में इतना बहरा हो जाता है कि धर्म, पुण्य, सेवा, कर्तव्य और स्नेह की कोई पुकार उसके कानो में नहीं पहुंच पाती। इसलिए लोभ को सद्गुणों का संहारक कहा है । लोभ प्रतिसंलीनता का साधक लोभ के दुर्गणों को समझ कर उसे दूर से ही छोड़ने का प्रयत्न करता है। जब कभी उसके मन में लोग की लहर उठती है तो वह सोचता है- में गलत रास्ते पर चल रहा है। यह कांटों का रास्ता है, इस पर चलने से मुझे कष्ट होगा, गीड़ा होगी और आखिर महाविनाश के खड्डे में जा गिरूंगा | इतिहास के अनेक उदाहरण उसके सामने नित्रपट की भांति आकर बोलने लगते हैं अमुक ने लोन किया तो उनका नाम हुआ, अमुक लोभ के कारण अकाल में ही मृत्यु के मुंह में चला गया, अणुक सोभी ने जीवन भर इतने कष्ट से । ज्ञानी तापस सूर कवि कोविद गुन अनगार । केहि को सोभ विना फोन्ह न एहि संसार । फिर लोभ से इस लोक में ही नहीं, किन्तु उठाने - लोहान कुलो भोग से दीनों जन्म में भय और माना बेनी पड़ती है | इस प्रकार यह नोम के को रोकता है, से रोग की भावना मनको लिभ, संत बनाता है। रामरित मानस, उपराष्यगन ext
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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