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________________ प्रतिसंलीनता तप ३४१ श्रुत मद-ज्ञान का, शास्त्रअभ्यास का अर्थात् विद्वत्ता का अभिमान ! लाभ मद-इच्छित वस्तु के मिल जाने पर अपने लाभ का अभिमान ऐश्वर्य मद- ऐश्वर्य अर्थात् प्रभुत्व,वैभव तथा सत्ता का अभिमान । अभिमान को कैसे जीते ? अभिमान के इन आठ कारणों पर तथा इसी प्रकार के अन्य कारणों पर विचार करके यह देखना चाहिए कि मनुष्य जिन बातों का अभिमान कर रहा है वह कितनी असार व तथ्यहीन है ! ऊंचा कुल व गोत्र जाति, प्राप्त कर मनुष्य अहंकार करता है कि मैं इतने बड़े खानदान का हूं। इतने ऊंचे कुल का हूं ! पर क्या उसका यह सोचना सही है ? यह कुल व जाति किसका है ? आत्मा का या शरीर का ? शरीर तो जड़ है, सवका एक समान है । और आत्मा का कोई कुल नहीं, जाति नहीं ! फिर तू जो ऊंच गोत्र का अभिमान कर रहा है वह कितनी बार नीच गोत्र में जाकर उत्पन्न हुआ कुछ पता है ? शास्त्र में कहा हैअसई उच्चागोए असईनीयागोए णो होणे णो अइरित। यह जीव अनंतबार उच्चगोत्र में जन्म ले चुका है, अनन्तवार नीच गोत्र में उत्पन्न हो चुका है, अतः फिर कौन तो हीन है ? और कौन उच्च ! अर्थात् हर आत्मा नीच कुल में उत्पन्न हो चुका है-फिर ऊंच कुल का अभिमान किस बात का ? मनुष्य इस शरीर का अभिमान करता है, धन का, वल का अभिमान करता है ; पर वह अहंकार कितने दिन चलेगा ? शरीर तो आखिर सभी का जलकर राख हो जायेगा। सभी की हड्डियां मरघट में इधर-उधर पैरों से रुलती हैं, चाहे राजा हो या रंक ! एक कवि ने कहा है एक दिन हम जा रहे थे सैर फो इधर था शमसान उधर फनिस्तान था। १ आचारांग २०६१
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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