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________________ ३३२ जैन धर्म में तप रोके, क्रोध ज्यों-ज्यों बढ़ता है उसके फल लगते हैं । अत: उसे आगे की दशा में पहुंचने से रोकना, यही वास्तव में क्रोध को विफल-फलहीन करने का अर्थ है। जैन सूत्रों की टीका में एक कुल पुत्र (क्षत्रिय पुर) की कथा आती है । किसी क्षत्रिय पुत्र को उसके दुश्मन ने मार डाला था। क्षत्रिय पुत्र का भाई अपने भाई की हत्या सुनकर आग बबूला हो उठा। उसका खून खोलने लग गया। वह हाथ में तलवार लेकर अपने भाई की हत्या का बदला लेने चल पड़ा । उसने प्रतिज्ञा की-'जब तक भाई के हत्यारे को पकड़ नन-जन से दम नहीं लूगा । छह महीने तक वह जंगल, पहाड़, नदी-नाले-सर्वत्र भटकता रहा । आखिर में हत्यारा पकड़ा गया। गुलपुर ने अपनी लपलपाती तलवार उठाकर उसे मार डालना चाहा, किन्तु हत्यारे ने--मुह में पारा का तिनका लेकर उसके चरण पकड़ लिए ! दीनतापूर्वक बोला--"गुझे जीवित छोड़ दो ! मैं तुम्हारी काली गाय हूं। मुझे शरण दो।" कुलपुत्र की तलवार रुक गई। वह असमंजस में पड़ गण । गया करें। मारे तो शरणागत की हत्या हो, न मारे तो वधु-घात का बदला कसे में? वह समस्या में उलझ गया । हत्यारे को मां के समक्षा ले जाकर सहा कियाऔर पूछा-- मां ! मैं क्या कहें ? इसे मार कर अपनी प्रतिज्ञा को पूरी कर या शरणागत की रक्षा कर क्षत्रिय धर्म को निवाई ? मां ने कहा--"बेटा ! अपने शोध को असफल करो । श्रोध को फमहीन करना ही मनुष्य का धर्म है। इसी में तुम्हारे क्षत्रियधर्म की शोना है।" गां की शिक्षा से पुलपुत्र ने बधुधातक को अभय दान देकर छोड़ दिया । वह अपने छह महीने के उन कोष को पी गया । तो यह है, शोध को विफल करने का एक उदाहरण! शोध को पी जाना---उठते हुए प्रोपगो उसी प्रकार दवा ऐना जैसे तीन होते रोग को दवा देनर क्या दिया जाता है, उस हुए दूध को जल का छोटा देकर मात गार दिया जाता है। समागत बुद्ध ने जगे कुभल मारमि दौड़ीप भारद को नमाम मीनार में जात
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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