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________________ प्रतिसंलीनता नपं ३२१ पांच भेद इस तरह इन्द्रिय प्रतिसंलीनता के यह पांच भेद बताये गये हैं१ श्रोत्र इन्द्रिय के विषयों के प्रति मन को जाने से रोके, तथा विषय समक्ष आने पर उनमें राग-द्वेप न करें। २ इसीप्रकार चक्ष इन्द्रिय को भी विषयासक्ति एवं राग-द्वेष से रोकें। ३ घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय एवं स्पर्शनइन्द्रियों के विषयों के प्रति भी मन का निरोध करें एवं इन्द्रियों सम्बन्धी विषय सामने अपने पर उनमें राग-द्वेप न करें। इसका सार यही है कि इन्द्रियों के जो विषय हैं, वे संसार में सदा से रहे हैं, रहेंगे, कोई उन विषयों को मिटाना चाहे तो यह बिल्कुल असंभव बात है। वे विषय समाप्त भी नहीं हो सकते, और इन्द्रियों के समक्ष आये बिना भी नहीं रह सकते--इसलिए साधक यही कर सकता है कि स्वयं विषयों की ओर दौड़े नहीं, और प्राप्त विषयों में आसक्त होकर राग-द्वेष न करें। जैसे स्वयं की प्रशंसा सुनने, कोई मधुर संगीत सुनने के लिए वह उत्सुक न हों, और यदि ऐसे शब्द कहीं से कानों में आते हों तो उनमें राग द्वेष न करें। मधुर रस का भोजन प्राप्त करने की स्वयं लालसा न करे, यदि सहज भाव में सरस भोजन मिल गया हो तो उसे राग-द्वप रहित होकर उपयोग में ले लें । यही इन्द्रिय-प्रति संलीनता है । कषाय प्रतिसंलीनता फषाय की परिभाषा और सम्प प्रतिसंलीनता के चार भेदों में प्रथम इन्द्रिय प्रतिसंलीनता का वर्णन करके फिर कपाय-प्रतिसंलीनता का विवेचन किया गया है। कपाय-शब्द जैन परिभापा का शब्द है-इसका अर्थ है-अन्तर की कलुपित वृत्तियां । जैन आचार्यों ने कहा है फलुसति जं च जीयं तेण फसाय त्ति वुचंति' - - १ प्रज्ञापना पद १३ की टीका
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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